जिसे हम अपनी ज़िन्दगी, अपना विगत और अपना अतीत कहते हैं, वह चाहे कितना यातनापूर्ण क्यों न रहा हो, उससे हमें शान्ति मिलती है। वह चाहे कितना ऊबड़खाबड़ क्यों न रहा हो, हम उसमें एक संगति देखते हैं जीवन के तमाम अनुभव एक महीन धागे में बिंधे जान पड़ते हैं। यह धागा न हो, तो कहीं कोई सिलसिला नहीं दिखाई देता, सारी जमापूँजी इसी धागे की गाँठ से बँधी होती है, जिसके टूटने पर सबकुछ धूल में मिल जाता है।
– निर्मल वर्मा, अंतिम अरण्य
एक लंबे वक़्त के बाद मूवीज़ की तरफ़ लौटा तो लाँग-पेंडिंग पॉलिश निर्देशक क्रिस्टॉफ़ किज़लॉस्की की ट्राइलॉजी थ्री-कलर्स की ओर लौटा। किज़लॉस्की एक अलग तरह के निर्देशक हैं। इनकी फ़िल्में ह्यूमन साइकोलॉजी और बिहेवियर पर फोकस्ड व्यक्तित्वाद की बातें करती हैं। उसकी आज़ादी (सही मायने में) के बारे में, और उसके जीवन में उसके अपने लोगों द्वारा, और आसपास के समाज द्वारा पड़ने वाले प्रभावों से हुए, और हो रहे बदलावों के बारे में।
फिजिक्स और फिलोसफी में एक कॉमन टॉपिक है जिसपर बात होती है – “क्वांटम इफ़ेक्ट और क्वांटम रिलेटिविटी” किज़लॉस्की की हर मूवीज़ इन टॉपिक्स के साथ खेलते हुए दिखती हैं। अस्तित्ववाद और यथार्थवाद एकदम बौना जान पड़ता है इनकी फ़िल्मों में। संगीत को किज़लॉस्की एक स्क्रिप्ट की तरह इस्तेमाल करते हैं। संगीत का इस्तेमाल ये अपनी फ़िल्मों में पात्रों के डॉयलॉग्स की तरह करते हैं। अस्तित्व से एकदम चिपकी हुई, ऐसे जैसे उसके मन की उथल-पुथल को म्यूजिक के एक-एक बीट्स और नोट्स से महसूस करने की कोशिश और बताने की कोशिश कर रहे हों। यह ऐसा नहीं है जैसा नाटकों और बॉलीवुड और बैकग्राउंड स्कोर में इस्तेमाल होता है, यह ऐसा है जैसा हम अक्सर चीज़ों से उकताकर मौन साधने के लिए करते हैं।
सच और झूठ का क्या औचित्य है? फ़िल्म बताती है कि स्थान और समय का। उसके अलावा सच और झूठ का कोई औचित्य नहीं। अन्यत्र ये केवल शब्द मात्र हैं, अन्य शब्दों की भाँति। जूली स्मृतियों से ग्रसित अपने आप से अलग-थलग एक भटकाव में है। अवसाद ग्रस्त, कुछ ढूँढती हुई, अपने जीवन को धकेलती हुई, भागती, छिपती, और अजाने से बचती हुई। उसे किस चीज़ का डर है वो नहीं जानती, ना ही ये कि उसे डर है भी, या नहीं। उसे ऐसा लगता है कि उन सभी चीज़ों से बचना है जो अभी तक रहीं उसके जीवन में।
फ़िल्म में 3 महिला पात्र हैं। तीनों की डायनामिक्स अलग है। तीनों 3 अलग-अलग ज़िंदगियों का हिस्सा हैं पर तीनों केवल एक विषय की ओर उन्मुख हैं, वो है प्रेम। एक ही तत्व के तीन हिस्से। यह हिस्सा केवल किज़लॉस्की ही कर सकते था, शायद। एक और जगह यह अनुभव किया है मैंने,वो नदी के द्वीप में(अज्ञेय का एक कालजयी उपन्यास)। पर वह हिस्सा यथार्थवाद के बेहद क़रीब है। उसकी अनुभूति भी हो सकती है। उसके बारे में पढ़ते हुए सोचा-समझा जा सकता है, लेकिन किज़लॉस्की की इस फ़िल्म में यह अनोखा है। जितनी बार सोचो उतनी बार अनोखा। देखते वक़्त केवल देखा जा सकता है, शून्य में डूबे हुए मन की तरह।
हम क्या हैं? यादों और अर्थों की एक दुनिया जिसका औचित्य हमारे अस्तित्व से भी अधिक है। इंसान स्मृतियों का एक गुल्लक है, जिसके टूट जाने पर जो बचता है वो केवल भौतिक दुनिया का रह जाता है। जैसे मृत्यु के बाद शरीर। जिसकी गुल्लक से उसकी प्राणवायु छोड़कर चली गई है, या यूँ कहें कि टूटने से विरक्त हो गई है।
निर्मल वर्मा अपनी उपर्युक्त पंक्तियों में यही बताने की कोशिश कर रहे हैं, शायद।
– गीतांश